दिल्ली

कुछ शहर ऐसे होते है जिनकी जगह यादों के बजाय आपके दिल में ज्यादा होती है।

पाँच साल पहले जब पहली मर्तबा दिल्ली आया था तब ये शहर बड़ा अजीब सा डरावना सा महसूस हुआ था। पूरे चार साल के अपने दिल्ली प्रवास के दौरान शुरुआती तीन, साढ़े तीन साल तो दिल्ली को अपना ही नहीं पाया और जब इस शहर से रुख़सत होने का वक़्त आया तो शरीर आँसुओं की धारा में बहकर इस शहर से तो दूर चला गया लेकिन दिल और दिमाग हमेशा-हमेशा के लिए यहाँ कैद होकर रह गए

शहर तो अनेकों है और एक से बढ़कर एक है लेकिन दिल्ली की ख़ास बात यही है की इसे आप अपना बनाओ या ना बनाओ पर ये शहर आपको जरूर अपना बना लेगी। जिसके बाद आप न सिर्फ दिल्ली को मिस करेंगे, बल्कि दिल्ली जाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ेंगे। शायद इसकी इसी ख़ासियत की वजह से कहा जाता है दिल्ली है दिल वालों की।

हम सबका अपना एक पसंदीदा शहर होता है जो हमारे दिल के बहुत करीब होता है। कोई शहर यूँ ही हमारे दिल में नहीं बस जाता इसके बदले में उसे बहुत सी बेशक़ीमती चीज़ें देनी पड़ती हैं। जो ढ़ेर सारी खट्टी-मीठी परतों के रूप में हमारे ज़िन्दगी से जुड़ती चली जाती है। जिन परतों को वक़्त वक़्त पर टटोलकर हम कभी हँस लिया करते है तो कभी चुपके से आसुँओं से साफ भी कर लिया करते है।

दिल्ली ने ना सिर्फ मुझे ग़म और खुशी के बहाने दिए बल्कि व्यवहारिक रूप में ढ़ेरों सांसारिक ज्ञान भी दिए जिन्हें बचपन से दादी, नानी, माँ और पापा से कहावतों के रूप में सुनता आया था।

आज दिल्ली मेरे दिल में एक शहर के रूप में नहीं बल्कि एक महबूबा की तरह बस गई है। वो महबूबा जिससे आप तो दूर जा चुके हो लेकिन वो आपमें हमेशा-हमेशा के लिए बस गई हो।

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