होली हुरदंग

वक़्त बदलता है, हमारी सोच बदलती है, हम बदलते हैं और हमारे उत्सव मनाने का तरीका भी बदलता है।

रंगोत्सव में पाँच सालों बाद इस बार बिहार अपने गाँव पहुँचा तो महसूस किया की हमारे त्योहारों और उत्सवों में भव्यता जितनी तेजी से आयी है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से हमारे त्योहारों से भावनात्मक लगाव, पारिवारिक समरसता और सामाजिक सौहार्द गायब हुआ है।
ऐसा नहीं है कि हमनें पर्व-त्योहार मनाना छोड़ दिया है। त्योहारें आज भी मनाई जाती है और पहले से ज्यादा बड़े स्तर पर मनाई जाती है। क्योंकि हमारा और हमारे त्योहारों का वैश्वीकरण हो चुका है। जिसका सबसे बड़ा कारण मीडिया और बाज़ारवाद है।

आज त्योहारों में ख़ुशी तो होती है लेकिन सुकून नहीं मिलता क्योंकि हम लोगों को खुश करने के बजाय क्षणिक सुख में ज्यादा यकीं करने लगे है। शोर-शराबा भी होता है पर इन शोर-शराबों में वो सुर नहीं दिखता जो बचपन में पड़ोसियों के साथ मिल बाँटकर त्योहारों को मनाने में मिलता था।

हमारे हर पर्व-त्योहार को मनाने के पीछे बहुत से नैतिक और सामाजिक मूल्य छिपे है। जरूरत है तो बस उस मर्म को समझने की, जिनको दरकिनार कर हम वैश्वीकरण के नाम पर अपना आध्यात्मिक, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक पतन करते जा रहे है। आज होली है इसलिए उदाहरण भी होली का ही।

होली के एक रात पहले होलिका दहन किया जाता है, जो एक प्रतीक है समाज से बुराइयों के खात्मे का और उसके अगले दिन हिंदी कलैंडर के अनुसार नव वर्ष की शुरुआत होती है। जिसकी खुशी में लोग आपसी झगड़े को भुलाकर एक-दूसरे को रंग और गुलाल लगाते हैं। लेकिन आज लोग होलिका दहन के नाम पर कहीं चोरी से तो कहीं ज़बरदस्ती किसी की झोपड़ी तो किसी की चौकी (बेड) यहाँ तक की हरे पेड़ों को काटकर होलिका दहन के नाम पर आहूत कर उदंडता का परिचय देते हैं।

होना तो ये भी चाहिए था कि लोग रंगों को छोड़ गुलाल की होली खेले ताकि होली के नाम पर बर्बाद होने वाले लाखों लीटर पानी को बचाया जा सके। हम होली के नाम पर हुरदंग की बजाय आपसी रंजिश को भुलाकर लोगों के चेहरे के साथ-साथ उनके मन को भी खुशियों के रंग से रंगीन कर दें।

आगे बढ़ना अच्छी बात है, बिना आगे बढ़े हमारी तरक्की संभव नहीं है। ये भी सच है कि हम आगे बढ़ेंगे तो परिवर्तन भी आएगा। लेकिन आज का परिवर्तन उल्टी दिशा में हो रहा है। जो कि एक सोचनीय बात है।

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