मीडिया संस्कृति और उपभोक्तावाद

      आज संस्कृति, मीडिया और उपभोक्तावाद सबसे ज्यादा युवाओं से जुड़ा हुआ विषय है। जिस तरह कृष्ण पैदा तो जेल में होते हैं। लेकिन उनकी सारी लीलाएं गोकुल में चलती है। उसी तरह मीडिया और संस्कृति के सारे प्रश्न जहाँ से पैदा होते है। वहाँ इनकी उपस्थिति नहीं दिखाई देती। उनकी उपस्थिति दुसरे जगह दिखती है। यूँ तो हमें आज़ादी 1947 में मिली लेकिन 19 जुलाई 1991 को हमारा देश 50 सालों के लिए या फिर यूँ कहे तो अगले 500 सालों के लिए पुनः ग़ुलाम हो गया। क्यूंकि उसी दिन हमने “बेल आउट डील” नामक एक संधि पर हस्ताक्षर किये थे। जिसके तहत हमने सोना, पैसा समेत और भी कई कीमती चीजे गिरवी रख दी। ताकि देश को आर्थिक संकट से उबरा जा सके, और देश एवं समाज का भविष्य तय किया जा सके। दरअसल ये बाजारवाद या पूंजीवाद की शुरुआत थी, लेकिन संधिकर्ताओ ने इस समझौते को बाजारवाद या पूंजीवाद ना कहकर एक इकोनोमिकली डॉक्टरींग की संज्ञा दी। उस वक़्त एक प्रसिद्ध विचारक ‘किनित गॉल ब्रिथ’ ने ये थ्योरी दी थी, की मार्क्सवाद पूंजीवाद के करीब आ रहा है और पूंजीवाद मार्क्सवाद के इसलिए क्रांति की स्थितियाँ प्रारंभ हो गयी है।

इसी समय के एक और बड़े चिन्तक ‘फुकु एम आर’ भविष्यवाणी करते है की- एक बहुत बड़ा मध्य वर्ग होगा। इसी के बाद हमारे यहाँ ABD (Asian Bank of Devlopment), World Bank, और IMF (International Monetary Fund) आया, और इन सबने मिलकर हमारे यहाँ पूंजी का प्रवाह पैदा किया। “बेल आउट डील” की संधि का मतलब था की अब सरकार को जनता की जवाबदेही की जरूरत नहीं थी, बल्कि अब  WTO के एक अधिकारी के सामने हमारे वित्त मंत्री को ये बताना था, की हमने राज्य की भूमिका राज्य को चलाने में कितनी कम कर दी है। इस संधि के फलस्वरूप हमने शिक्षा, संचार और चिकित्सा को प्राइवेट हाथों में दे दिया, और यही बाजारवाद या उपभोक्तावाद का मूल उद्देश्य था।

उपभोक्तावाद शब्द बहुत छोटा है क्यूंकि बाज़ार और बाज़ारवाद के बीच एक बहुत बड़ा फर्क है। हम बाज़ार की आलोचना कर रहे है। जबकि बाज़ार तो हमारे साथ सदियों से था। बाजारवाद एक डॉक्टरी है। जिसके तहत ये होता है की हम अंतराष्टीय पूंजी को कितना बढ़ाते है। उपभोक्तावाद बाजारवाद का ही एक हिस्सा है।

उपभोक्तावाद  के मध्य में बुजुर्ग नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ युवा है, क्यूंकि बदलाव युवाओं में किया जा सकता है, बुजुर्गो में नहीं। इसलिए युवाओं को बाँटा जा रहा है और दुनिया के किसी भी देश समाज में इतना बड़ा छल नहीं हुआ जो हमारे यहाँ हो रहा है। आज “यंग इंडिया” शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। यानी ऐसा लग रहा है, जैसे इंडिया से अलग कोई दूसरा इंडिया है, जिसका इस मूल इंडिया से कोई वास्ता नहीं है। यहाँ सांसद शाहबुद्दीन का चर्चा करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने “मुस्लिम इंडिया” नामक एक पत्रिका निकाली थी। समझ नहीं आता की ऐसे लोग क्या पढाना चाहते है, समाज को क्या समझाना चाहते है। उस पत्रिका का नाम इंडियन मुस्लिम हो सकता था। लेकिन इंडियन मुस्लिम कहने से तो वो भारत के भीतर समाहित हो जायेगा। मुस्लिम इंडिया कहने से लगता है की इंडिया के भीतर एक दूसरा सामानांतर इंडिया है।

जिस के तर्ज पर अब “यंग इंडिया” का नारा दिया जा रहा है, और ये यंग इंडिया का नारा इसलिए दिया जा रहा है। क्यूंकि आज घर में जो चीज़े आ रही है। उसका चयन आज घर के बच्चे, हमारी युवापीढ़ी करती है। बच्चे घरवालों से कहते है, पापा ये अखबार चाहिए, ये चैनल नहीं वो चैनल चाहिए, ये कपड़े नहीं वो कपड़े चाहिए इत्यादि। इसलिए हमारे युवापीढ़ी को एक नए तरह से बांटा जा रहा है,और इस यंग इंडिया अभियान में सुचना तंत्र ठीक उसी तरह काम कर रही है, जैसे की हवाई सेना युद्ध के वक़्त किसी क्षेत्र पर बमबार्डिंग करती है, और थल सेना तुरंत जाकर उस जगह पर कब्ज़ा कर लेती है। आज संचार तंत्र युवाओं पर बमबार्डिंग कर रहा है, विचारों का, चीजो का और बाज़ार जाकर उस पर कब्ज़ा कर लेता है।

आज युवा अपनी माँ को संदिघ्ध नज़रों से देखता है। पिता को अपना सबसे बड़ा शत्रु समझता है। क्यूंकि उसकी सोच सूचना तंत्र तय कर रही है। आज बाज़ार और वस्तु इतने अंतर्गथित है, की उसे बच्चे का युवाओं का स्वप्न बना दिया गया है। इंदौर का उदाहरण ले तो वहाँ 402 बच्चों ने जो आत्महत्या की उनमे से 340 बच्चें FIR के अनुसार गृहकलह की वजह से मरे।

बच्चे रहते तो अपने माता पिता के साथ है, लेकिन करते अपने मन की है। क्यूंकि बच्चों, युवाओं पर उनकी सोच पर आज मार्केट हावी है। हमारा रहन- सहन, पहनावा, खान- पान, हमारे विचार आज बाज़ार तय कर रहा है। संस्कृति के तीन मोटे-मोटे घटक है। भाषा, भूषा और भोजन। इन तीनो को जब बदल दिया जायेगा तो हम कहने के लिए भारतीय होंगे। हमारे पास ना तो माँ को माँ कह सकने वाली भाषा होगी, ना हमारे पास वो वस्त्र होंगे और ना ही वो खान-पान होगा। क्यूंकि हम जिसे छोटी-छोटी चीजे समझ रहे है, वो बड़ा मायने रखती है। हिन्दुस्तान की विडम्बना रही है की जब चीजे सर से ऊपर निकल जाती है, तब कहते है, की अरे क्या हो गया। तब उपभोक्तावाद बाजारवाद आता है, और कहता है ये तो होना ही था। ये व्यवस्था हमारे आसपास ऐसा माहौल पैदा करती है, जिससे लगने लगता है की हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं है।

आज बाज़ारवाद ने भाई-बहन के रिश्तों के मायनों को बदल दिया है। कोई भी महिला या लड़की अब बहन जी कहलाना पसंद नहीं करती है। अपने भाई के सामने भारतीय वस्त्र साड़ी पहन कर जाना पसंद नहीं करती है। अब आप सोचिये की हमारे ही पोशाक को हमारे ही विरुद्ध अश्लील बना दिया गया है। बहन का सम्बन्ध इस समय सबसे ज्यादा संकट ग्रस्त है। AIR (ऑल इंडिया रेडियो) में कार्यरत एक अनाउंसर बताती है की पिछले 15 – 20 सालों में जब भी रक्षा बंधन का त्योहार आता है, तो मुझे गाने नहीं मिलते बजाने के लिये। वहीं पुराने गाने “राखी भादों का त्योहार, भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना” इत्यादि। आज किसी लड़की को कोई बहनजी बोल दे तो उसके लिए जो ड्रेस,डियो,कॉस्मेटिक का बाज़ार है सब फालतू हो गया। ये सारी चीजे हमारी सभ्यता और संस्कृति में फिट नहीं बैठती है।

 आज हम विचारों के जरिये नहीं चीजों के जरिये मॉडर्न बनाये जा रहे है। क्यों ऐसा होता है की दिल्ली के जंतर-मंतर पर अचानक बहुत साड़ी सभ्य और चिंतित अभिजात वर्ग की विदुषियाँ इक्कठी होती है,और विरोध प्रदर्शन कर बताती है की कनाडा में एक पुलिस वाले ने एक औरत को Se is being like a slut बोल दिया। इस घटना पर हमारे यहाँ प्रदर्शन हो रहा है। हिंदुस्तान में ओडिशा चले जाइये, बस्तर चले जाइये वह के गाँव में औरतों को पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं। हमने कभी जंतर-मंतर पर उनकी देह दिखने पर तो चिंता प्रकट नहीं की। दरअसल वो स्त्रियों की चिंता नहीं है, वो रेडिमेड गारमेंट एसोसिऐसन जो वर्ल्ड में काम करती है। उसकी स्ट्रेटजी है, वो बताती है की मामला ये नहीं है बल्कि उन्हें तो ये डर है की इन कपड़ो के विरुद्ध हिन्दुस्तान में कहीं बग़ावत ना खड़ी हो जाये। अगर ऐसा हो गया तो उनका जो करोड़ो का बाज़ार है, वो कहाँ जायेगा। जहाँ तक सवाल है पहनावे का तो इस मामले में साड़ी काफी आगे थी। क्यूंकि वो एक फ्री साइज़ थी जो वेस्टर्न गारमेंट को जगह नहीं देती थी। उसे माँ,बेटी,पतोह,पड़ोसन सब पहन लेती थी। आज ऐसा नहीं है, अब फिटिंग का फंडा है। इस फंडे के आने से कपडे इंडिविजुअल (व्यक्तिगत) हो गए है। पहले एक फ्री साइज़ थी जिसे सब पहन लेते थे। ये बदलाव उन लोगों की देन हैं, जो हमारे पुरे भीतर घुसकर हमारे सोचने समझने की क्षमता को ही ख़त्म करना चाहते है। हॉवर्ड की स्टडी है एक हिन्दुस्तानी लड़की है महाराष्ट्र में उसकी रिसर्च है की हमारे न्यूरौंस को कैसे प्रभावित किया जाये किसी चीज को खरीदने के लिए। अब सोचिये की ये कितने बारीक़ जा कर सोचते है और हम समझते है की हम तो आधुनिक हो रहे है.

 एक रिसर्च बताता है की जब कोई जापानी अमेरिका जाता है, तो 105% जापानी बन जाता है। चीनी जाता है तो 120% चीनी और जब कोई भारतीय अमेरिका जाता है तो 80% अमेरिकी बन जाता है। जिस तरह से अमेरिका का पैसा भारत में आ रहा है। आने वाले 50 साल में हम अमेरिका के अघोषित, शाषित राज्य की तरह बदल जायेंगे। क्यूंकि उसके पास पैसा है और पिछले 20 सालों में जो भारतीय को अमेरिका में काम मिला है। वहाँ हमें साइंटिफिक अस्सिस्टेंट/वर्कर कहा जाता है ना की साइंटिस्ट।जिस तरह हमारे स्थानीय चीजों को जड़ो से उखाड़कर बाहर डाला जा रहा है चाहे वो हमारी सभ्यता संस्कृति हो या हमारे यहाँ का एक विद्वान वर्ग बिना इन चीजो के हमआगे अपने भविष्य का नक्सा कैसे बना पाएंगे।हम इसके पेंच बहुत सालों बाद समझ पाएंगे।

 आज का युवा गुस्से से भरा हुआ है। ये पुराने समय के अमिताभ बच्चन वाला गुस्सा नहीं है। जो कभी Anguas Willsun के लिए एक शब्द इस्तेमाल किया गया था Angry Young Man। वो बाद में अभिताभ बच्चन के लिए हमारे फिल्मों में इस्तेमाल किया गया। वो Angry Young Man व्यवस्था के विरुद्ध वाला था। लेकिन अब उपभोग के विरुद्ध है। माँ ने ब्लैकबेरी नहीं दिलाया बच्ची बालकनी से कूद गयी। पॉकेट मनी नहीं बढ़ाया बच्चा घर से भाग गया। हमारे यहाँ चीज़ो को इतना बड़ा बना दिया गया है की वो अपने वजूद से लड़ रहा है,व्यवस्था से नहीं। उपभोक्तावाद ने जो आकांक्षाए हमरे भीतर पैदा कर दी है, वो उससे लड़ रहा है और यही सबसे बड़ी खतरनाक स्थिति है, की हमारी पूरी की पूरी पीढ़ी की लड़ाई की दिशा बदल दी गयी है। आज का युवा या तो अपने घर के विरुद्ध है, अपनी संस्कृति के विरुद्ध है या फिर अपने परंपरा के विरुद्ध है। उनकी सोचने समझने की शक्ति को छिना जा रहा है। आज से कुछ साल पहले खबर आयी थी की कुछ पाकिस्तानियों ने दस हिन्दुस्तानियों के सर काट दिए। उसके बाद पुरे देश में ऐसा राष्ट्रवाद पैदा हुआ की हम 40 सर चाहेंगे उनके 80 से 1000 सिर काट के लायेंगे। लेकिन रूस और अमेरिका की कुल आबादी के बराबर हिन्दुस्तान की युवापीढ़ी है, और उनकी खोपड़ी खोलकर उनके दिमाग को बाहर ले जाया जा रहा है।इस पर कोई नहीं सोचता और किसी को इसकी चिंता भी नहीं है।

हम क्या होना चाहते है,और हमें कौन तय कर रहा है। जिस दिन हम ये समझ लेंगे उस दिन सचमुच भारत वास्तविक तरक्की की ओर अग्रसर हो जायेगा। क्यूंकि युवा ही इस देश को आगे बना सकता हैं। लेकिन अभी युवा को दुसरे तरह से बनाया जा रहा है। उसे एक नए तरह के लालशाधिक्य ने घेर लिया हैं। उसके सपने चीजों से जुड़े है विचारों से नहीं। जब तक हम इन चीज़ो को नहीं समझ पाएंगे हम संस्कृति की भी बात करेंगे तो खोखली बात होगी। इनके बगैर हम अपनी सभ्यता संस्कृति को नहीं समझ पायेगे।

  इस समय अगर कुछ ख़त्म की जा रही है तो वो हमारी भाषा है। आज भाषा पर सबसे बड़ा संकट है, क्यूंकि वो कहते है, की अब हम किसी देश को जीतने के लिए युद्धपोतों के साथ हमला करने नहीं जाते हैं। बल्कि हम भाषा और संस्कृति के साथ जाते है, और पाते है की वो तो हमारे ग़ुलाम बनने के लिए बेचैन हैं।                 

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